सफ़्हा - १
सफ़्हा - २
सफ़्हा - ४
Saturday, August 23, 2008
Wednesday, August 13, 2008
सफ़र को और कुछ दुश्वार करते,
सफ़र को और कुछ दुश्वार करते,
अभी मंजिल को तुम इन्कार करते.
ये क्या कि उम्र भर चारागरी की,
किसी को इश्क़ मे बीमार करते.
तो एक दिन तुमसे खुशबू आने लगती,
अगर फूलों का कारोबार करते.
तमन्ना है ये दिल मे तेरी खातिर,
किसी दिन हम भी दरया पार करते।
तो फिर ऐसा हुआ कि रो पडे हम,
कहाँ तक जुर्म का इक़रार करते.
अगर बेजान होते सूखे पत्ते,
तो कैसे दश्त को होशियार करते.
अभी मंजिल को तुम इन्कार करते.
ये क्या कि उम्र भर चारागरी की,
किसी को इश्क़ मे बीमार करते.
तो एक दिन तुमसे खुशबू आने लगती,
अगर फूलों का कारोबार करते.
तमन्ना है ये दिल मे तेरी खातिर,
किसी दिन हम भी दरया पार करते।
तो फिर ऐसा हुआ कि रो पडे हम,
कहाँ तक जुर्म का इक़रार करते.
अगर बेजान होते सूखे पत्ते,
तो कैसे दश्त को होशियार करते.
जीते जी ये रोज़ का मरना ठीक नहीं....
जीते जी ये रोज़ का मरना ठीक नहीं,
अपने आप से इतना डरना ठीक नहीं.
मीठी झील का पानी पीने की खातिर,
इस जंगल से रोज़ गुज़रना ठीक नहीं.
कुछ मौजों ने मुझको भी पहचान लिया,
अब दरया के पार उतरना ठीक नहीं.
वरना तुझसे दुनिया बच के निकलेगी,
ख़ुद से इतनी बातें करना ठीक नहीं.
सीधे सच्चे बाशिंदे हैं बस्ती के,
दानिश, इन पर जादू करना ठीक नहीं.
अपने आप से इतना डरना ठीक नहीं.
मीठी झील का पानी पीने की खातिर,
इस जंगल से रोज़ गुज़रना ठीक नहीं.
कुछ मौजों ने मुझको भी पहचान लिया,
अब दरया के पार उतरना ठीक नहीं.
वरना तुझसे दुनिया बच के निकलेगी,
ख़ुद से इतनी बातें करना ठीक नहीं.
सीधे सच्चे बाशिंदे हैं बस्ती के,
दानिश, इन पर जादू करना ठीक नहीं.
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